भारत प्रारम्भ से ही धर्म प्रधान देश रहा है। वैदिक-कालीन धार्मिक जटिलता से उबारने में बौद्ध धर्म ने जनता की मदद की। छठी शताब्दी ई0 पू0 भारत में वर्ण-व्यवस्था का प्रचलन पृथक जातियों के रूप में हो चुका था। कर्मकांड धर्म के मुख्य अंग बन चुके थे, ब्राह्मणों ने इसे और जटिल तथा आडम्बरपूर्ण बना दिया था। यज्ञ तथा कर्मकांड की जटिलता से मुक्ति पाने के लिए जनता व्यग्र थी। धर्म विनाश की ओर अग्रसर था। ऐसे समय भारत में महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ जिन्होंने अपनी शिक्षाओं एवं सिद्धांतों से कर्मकांड एवं आडम्बरो में उलझी जनता को एक सहज, सरल एवं बोधगम्य धर्म रूपी प्रकाश से आलोकित किया।
महात्मा बुद्ध की जीवनी - गौतम बुद्ध का बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनका जन्म 563 ई0 पू0 पूर्वोत्तर बिहार में कपिलवस्तु के निकट नेपाल की तराई में लुम्बनी ग्राम के आम्रकुंज में हुआ था। इनके पिता शुद्धोधन शाक्य कुल के क्षत्रियवंशी राजा थे, जिनकी राजधानी कपिलवस्तु थी। गौतम बुद्ध के जन्म के सातवें दिन ही इनकी माता महामाया का देहांत हो गया, अतः इनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने इनका लालन-पालन किया। गौतम बुद्ध के जन्म के समय ही उन्हे देखकर कालदेव तथा ब्राह्मण कौडिन्य ने यह भविष्यवाणी की थी कि वह या तो चक्रवर्ती राजा बनेंगे अथवा महान सन्यासी। गौतम बुद्ध बचपन से ही चिंतनशील थे एवं प्रायः जम्बू वृक्ष के नीचे ध्यानमग्न बैठे रहते थे। उनकी इन गतिविधियों को देखते हुए 16 वर्ष की आयु में ही गौतम बुद्ध का विवाह पड़ोसी कोलियगण की सुंदरी कन्या भद्रा कात्यायनी (यशोधरा-इनके अन्य नाम गोपा, बिम्बा भी मिलते हैं) से कर दिया गया। इनका एक ही पुत्र भी हुआ। किन्तु गौतम बुद्ध प्रसन्न नहीं हुए वरन उसे मोह बंधन का 'राहू' माना एवं उसका नाम राहुल रखा।
गौतम बुद्ध की विचारशील प्रवृत्ति को समृद्ध कुल का विलासिता से परिपूर्ण वैवाहिक जीवन भी बदल न सका। निरंतर ध्यानमग्न एवं चिंतनशील गौतम बुद्ध के लिए गृहस्थ जीवन का आकर्षण बेमानी था। गौतम बुद्ध के मन में वैराग्य की भावना को बलबती करने में उनके जीवन संबंधी चार दृश्यों में अहम भूमिका अदा की। ये चार दृश्य थे -
- एक जर्जर शरीर वाला वृद्ध,
- एक रोगग्रस्त व्यक्ति,
- एक मृत व्यक्ति,
- एक प्रसन्न मुद्रा में भ्रमणशील सन्यासी जो सांसारिक मोहों से मुक्त प्रसन्नचित्त था।
गौतम बुद्ध के चिंतनशील क्रिया-कलापों से चिन्तित उनके पिता शुद्धोधन अपने पुत्र को सांसारिक भागों में रमाने के लिए सतत प्रयासरत थे। एक रात अनेक रमणीय गणिकाओं का नृत्य देखते-देखते गौतम बुद्ध सो गये। रात को अचानक जब उनकी नींद खुली तो साज-शृंगार विहीन निद्रामग्न गणिकाएँ उन्हें काफी विद्रूप एवं भयानक दिखाई दीं। कुछ के बाल बिखरे हुए थे एवं कुछ लगभग निर्वस्त्र थी एवं भयानक खर्राटे भर रही थीं। इस दृश्य क्रम ने गौतम बुद्ध के मन में गृह त्याग की भावना को दृढ़ किया। अंततोगत्वा पत्नी यशोधरा एवं पुत्र राहुल को सोता छोड़कर 29 वर्ष की आयु में उन्होंने गृह त्याग दिया।
गृह त्याग के पश्चात ज्ञान की खोज में गौतम बुद्ध अलार कलाम एवं रुद्रक रामपुत्र जैसे आचार्यों के पास गये परंतु उन्हें संतोष नहीं मिला। तत्पश्चात कौण्डिन्य, वप्पा, भादिया, महानामा एवं अस्सागी आदि पांच ब्राह्मणों के साथ घोर तपस्या की।ज्ञान प्राप्त न होने पर तपस्या त्यागी और सुजाता नामक कन्या के हाथों भोजन ग्रहण किया। इस कारण इन पाँच ब्राह्मणों ने उनका साथ छोड़ दिया। अब गौतम बुद्ध गया में निरंजना नदी के किनारे एक पीपल के वृक्ष के नीचे इस दृढ़ निश्चय के साथ बैठे की अब ज्ञान प्राप्त करके ही रहेंगे। 'मार' (कामदेव) के नेतृत्व में अनेक पैशाचिक तृष्णाओं ने उनकी समाधि भंग करने के अनेक असफल प्रयास किये। अन्ततः आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान (बोधि) प्राप्त हुआ और वे बुद्ध कहलाये। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात बोधगया में ही तपस्सु और भल्लिक नामक दो बंजारों को सर्वप्रथम अपना शिष्य बनाया। गया से ऋषिपत्तन (सारनाथ) पहुँचे। यहाँ पर उन्हें उरूवेला में छूटे पाँच ब्राह्मण साथी कौण्डिन्य, वप्पा, भादिया, महानामा एवं अस्सागी पुनः मिले। इन्हें ही सारनाथ में गौतम बुद्ध ने ज्ञान का अपना प्रथम धर्मोपदेश दिया। यह धर्मोपदेश ही "धर्म चक्र प्रवर्तन" कहलाया। सम्राट अशोक ने इसी घटना को शाश्वत रूप देने के लिए यहाँ एक स्तूप बनवाया। यहीं गौतम बुद्ध ने संघ की भी स्थापना की। प्रथम पांच ब्राह्मण शिष्यों के अतिरिक्त अनेक वैश्यों सहित काशी का यश नामक धनाढय व्यक्ति भी संघ का सदस्य बना। बुद्ध ने संघ के सदस्यों को विभिन्न क्षेत्रों में जाकर धर्म प्रचार करने का आदेश दिया।
धर्म प्रचार की कड़ी में गौतम बुद्ध काशी के पश्चात उरूवेला गये यहाँ 'काश्यप' नामक कट्टर ब्राह्मण उनका शिष्य बना। राजगृह पहुँचे तो सारि पुत्र और महामोद्गल्यायन उनके शिष्य बना। भ्रमण करते हुए जब कपिलवस्तु पहुँचे तो महाप्रजापति गौतमी (बुद्ध की मौसी) ने प्रव्रज्या ग्रहण ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त की। अपने शिष्या आनंद 'जो नारी के समानाधिकार के सर्वप्रथम प्रचारक हुए' के कहने पर नारी को संघ में सर्वप्रथम प्रवेश दिया। बाद में बुद्ध के पिता, पत्नी, पुत्र, भाई (देवदत्त) ने भी बौद्ध धर्म स्वीकार किया। बाद में शाक्य गणराज्य के राजा भद्रिक, उनके सहयोगी आनंद, अनुरुद्ध एवं उपाली आदि ने भी बौद्ध धर्म अपनाया।
जीवन के अंतिम समय में पावापुरी में बुद्ध ने चुन्द नामक सुनार के घर भोजन ग्रहण किया। इस कारण वे उदर विकार से पीड़ित हुए (कुछ विद्वानों के अनुसार चुन्द के यहाँ मांस खाने से पेचिश हुई)। इसी अवस्था में वे कुशीनगर आये। यहीं पर 483 ई0 पू0 80 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हुई। बौद्ध धर्म में इस घटना को महापरिनिर्वाण कहा गया है। महापरिनिर्वाण के पश्चात गौतम बुद्ध के अवशेषों को 8 भागों में विभाजित किया गया। मगध के राजा अजातशत्रु ने तथा इस क्षेत्र के गणराज्यों ने स्तूप निर्मित कर बुद्धावशेषों को सुरक्षित रखा। महान मौर्य सम्राट अशोक ईसवी पूर्व तीसरी सदी में बौद्ध धर्म के अनुयायी हो गये।
Biography of Gautama Buddha |
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